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मैं एक सकारात्मक सोच वाला साधारण इंसान हूँ और आदर्श जीवन मूल्यों पर जीवन जीने की कोशिश कर रहा हूँ ।

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Saturday, December 15, 2012
फिल्मों का शौक कम या ज्यादा बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक लगभग सभी रखते हैं। ये शौक अब फ़िल्म देखने से बढ़कर फ़िल्मों में दिखने तक पहुच गया है, ज्यादातर लोग फिल्म देखने के साथ इसमें काम करने के लिए बेताब हैं, फ़िल्मों में काम करने से उनका मतलब हीरो बनने से ही होता है। फ़िल्म को लेकर जितनी भ्रांतियां बच्चों में है उतनी ही बुजुर्गो में भी है। और दिलचस्प बात तो यह है कि यह भ्रांतियां पढ़े - लिखे तबकों में भी  हैं। इसका उदाहरण कॉलेज में कार्यरत एक प्रोफेसर साहब के बातों से लगता है, जो  बातों-बातों में कहते हैं "अमिताभ बच्चन ने जो बागवान फ़िल्म बनाई थी मुझे बहुत अच्छी लगी"। जबकि बागवान फ़िल्म रवि चोपड़ा ने बनाई थी।  ज़माना पहले जैसा नहीं रहा। आज तो फिल्म रिलीज़ होने से पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक नायक - नायिका के साथ-साथ फ़िल्म  के निर्माता-निर्देशक से लेकर म्यूजिक डायरेक्टर और कोरियोग्राफर तक के इंरव्यू आते रहते हैं, बाबजूद इसके आज भी बहुत लोग यहीं समझते हैं की फ़िल्म हीरो ही बनाता है। ये भ्रम खास तौर पर  युवाओं में एक भेड़चाल की स्थिति पैदा कर रही है और नतीजतन आज हर कोई फिल्मों में हीरो बनना चाहता है।

फ़िल्म निर्माण किसी दो-चार लोगों के बस की बात नहीं है यह एक टीम वर्क है जिसमे 200-250 लोग होते हैं जिसकी अगुआई कुछ अनुभवी लोग करते हैं, और फ़िल्म के हीरो को भी इनके दिशा-निर्देश के हिसाब से काम करना होता है। फ़िल्म निर्माण की पूरी प्रक्रिया के तीन भाग होते हैं- प्री प्रोडक्शन, शूटिंग और पोस्ट प्रोडक्शन। प्री प्रोडक्शन में फिल्म के लिए स्टोरी डेवलपमेंट , स्क्रीनप्ले और संवाद लेखन के साथ कास्टिंग यांनी कहानी के हिसाब से कलाकारों का चयन आदि पर  काम किया जाता है। फिर शुरु होती है शूटिंग । फिल्म निर्माण में शूटिंग सबसे जटिल प्रक्रिया  है। इसमें डायरेक्शन, कैमरा, सेट डिजाइनर(आर्ट), कॉस्टयूम और मेकअप जैसे अलग-अलग डिपार्टमेंट होते हैं, जिसमे 150-200 लोग काम करते हैं। शूटिंग के बाद पोस्ट प्रोडक्शन होता है जिसमे डबिंग, एडिटिंग, साउंड डिजाईनिंग और प्रमोशन का काम होता है। उसके बाद फिल्म रिलीज  होती है और पहुंचती है सिनेमा घरों तक। फिल्म निर्माण की पूरी प्रक्रिया को जानने के बाद ये बात समझ में आती है कि फिल्म हीरो नहीं बनाते बल्कि एक एक्टर को हीरो बनाती है फिल्म। और फिल्म बनती है उन 200-250 लोगों के अथक मेहनत और सहयोग से जो कुछ लोगों के अगुई में एक टीम की तरह काम करते हैं उसी टीम का एक हिस्सा एक्टर (हीरो) भी होते हैं जो उस फिल्म में काम करते हैं।

फ़िल्म कला का एक ऐसा क्षेत्र जो बहुत बड़े कारोबार का रूप ले चूका है और यह कारोबार बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है। उसके साथ-साथ इसमें में काम करने वाले ऐसे रचनात्मक लोगों की आवश्यकता बढ़ रही है जो इस क्षेत्र के सभी तकनिकी पहलु की जानकारी रखते हों। जिस तरह एक इंजीनिअर बनने के इक्छुक छात्र को ये तय करना परता है कि वो किस चीज का इंजीनिअर बनाना चाहता है, और फिर उसकी पढाई करनी परती है। उसी प्रकार फ़िल्म में अपना कैरिअर बनाने के इक्छुक युवाओं को ये तय करना परेगा कि वो फिल्म निर्माण के किस डिपार्टमेंट में जाना चाहते हैं, फिर उससे जुडी तकनिकी बरिकिओं को सिखाना पड़ेगा। ताकि अपार संभावनाओं वाले इस क्षेत्र में वो एक बेहतर मुकाम हासिल कर सकें।

शौक हर कोई रखता है पर कुझ प्रबुद्ध लोग अपने शौक को ही अपना प्रोफेशन बना लेते हैं और अपने काम को पूरी जिंदगी अपने काम को इन्जोय करते रहते हैं। फिल्मों का शौक रखने वाले अपने शौक को समझें, उसके बारे में जानकारी हासिल करें और उसके तकनिकी पहलुओं को सीखें फिर इस क्षेत्र में दमखम के साथ उतरें ताकि नेम,फेम और पैसा के साथ अपने को पूरी जिंदगी अपने काम को इन्जॉय कर सकें।
Tuesday, January 3, 2012

कल लखनऊ और उसके आसपास ये अफवाह फैल गई कि "सोते हुए लोग पत्थर बन जाएँगे" इससे लोग रात में भी सो नही पाए। अगर ये अफवाह लोगों को जगाने में कारगर है तो इसे सच मानकर पूरे देशभर में फैलाये जाने की जरूरत हैं क्योंकि नैतिकता के इस न्यूनतम तापमान एवं भ्रष्टाचार के इस बर्फ़ीले तूफान में सोयी हुई जनता और उनके सोए हुआ ज़मीर कहीं हमेशा लिए जम गए तो फिर जागरण असंभव होगा । 
मैं ये तो नही कहुँगा कि अफवाह अच्छे हैं पर ये अफवाहेँ हमारे हक में है।
Sunday, January 1, 2012
साल 2012 यूँ तो अब शुरू हुआ है पर ये अपनी मौजूदगी हमारे मन-मस्तिष्क में बहुत पहले ही दर्ज करा चुका था ।पिछले एक-दो वर्षों में यह वर्ष काफी चर्चाओं में रहा और अपने आने से पहले ही बहुतोँ को बहुत कुछ दे गया – न्यूज चैनलों को TRP, वैज्ञानिकोँ एक नया प्रोजेक्ट , ज्योतिषियों और पंडितों को नाम-काम और पैसा, जिज्ञासुओँ को जिज्ञासा और ज्यादातर लोगों को डर । डर पृथ्वी के खत्म हो जाने का, डर खुद के खत्म होने का।
हम मौत से इतना क्यूँ डरते हैं ?
बुद्धिजीवी और विचारक कहते हैं – हर दिन को अपना आखिरी दिन समझें। जब हम ऐसा समझते हैं तो हमारे कामों कि सूची में से गैर जरूरी काम हट जाते हैं और सिर्फ वही काम करने को रह जाता है जो अर्थपूर्ण और अतिआवश्यक होते हैं और फिर हम उसे पूरा करने में कोई कसर नही छोड़ते।
इसलिए 2012 के बारे में ये अफवाहेँ भी हमारे हक में है ।
प्रो. अशोक चक्रधर ने सही कहा है की यह वर्ष हमसे कह रहा है -
जो मेहनत करी तेरा पेशा रहेगा
न रेशम सही तेरा रेशा रहेगा ।
अभी कर ले पूरे सभी काम अपने
तू क्या सोचता है हमेशा रहेगा ॥